सनातन धर्म और ज्योतिष
ज्योतिष के विषय में कठोर आलोचनात्मक, निंदात्मक, पाखण्ड, झूठ, धंधा आदि कहने वाले लोगो की अपनी इच्छा है क्योंकि किसी के कहने से सूर्य का प्रकाश कम नहीं होता।
ज्योतिष सूर्य और चंद्रमा की विद्या है। इसे लांछित करना प्रज्ञापराध की श्रेणी में आता है। जिसका दंड स्वयं काल समय आने पर देता है। सनातन की परम्परा से अनादिकाल से चल आ रहे वैदिक ज्ञान के अनुसार जानना चाहिए कि ज्योतिष क्या है...??
सनातन, वैदिक, हिंदू संस्कृति और आर्य परंपरा वेदों को मुख्य शास्त्र मानकर पूजती है। शास्त्रों ने वेदों के 6 अंग बताए हैं। जिन्हें शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, ज्योतिष और छंद के रूप में जाना जाता है। शास्त्रों ने ज्योतिष को वेदों का नेत्र कहा है, जिसके साक्षी भगवान सूर्य और चंद्रमा हैं।
ज्योतिष हमारा बनाया हुआ नहीं है। हम ज्योतिष के उन सूत्रों का अनुसरण करते हैं, जिन्हें वेदों की ऋचाओं का गान करने वाले मंत्रदृष्टा ऋषियों ने लिखा है।
ज्योतिष शास्त्र नक्षत्र आदि की स्थिति के अनुकुल या प्रतिकुल ग्रहों की गति की गणना का विज्ञान है । जिनके अठारह प्रवर्तक हमारे मनीषियों ने कहा है -
सूर्यः पितामहो व्यासो वसिष्ठोऽत्रि पराशरः।
कश्यपो नारदो गर्गो मरीचिर्मनुरङ्गिराः।।
लोमशः पौलिशश्चैव च्यवनो यवनो भृगुः ।
शौनकोऽष्टादशश्चैते ज्योतिःशास्त्र प्रवर्तकः।।
सूर्य, ब्रह्मा, व्यास, वशिष्ठ, अत्रि, पराशर, कश्यप, नारद, गर्ग, मरीचि, मनु, अंगिरा, लोमश, पौलिश, च्यवन, यवन, भृगु तथा शौनकादि ऋषि ज्योतिष शास्त्र के इन प्रवर्तक ऋषियों में लगभग सभी ने वेदों की ऋचाओं के ऋषियों के रूप में स्थान पाया है।
ज्योतिष को त्रिस्कन्ध कहा गया है। त्रिस्कन्ध ज्योतिष का व्याख्यान नारद संहिता में मिलता है, जिसके अन्तर्गत गणित, जातक (होरा) और संहिता का नाम जाना जाता है।
गणित स्कन्ध में परिकर्म (योग, अन्तर, गुणन, भजन, वर्ग, वर्गमूल, धन और धनमूल) ग्रहों के मध्यम और स्पष्ट करने की रीतियां बताई गई है, इसके अलावा अनुयोग (देश, दिशा और काल का ज्ञान), चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, उदय, अस्त, छायाधिकार, चन्द्रश्रंगोन्नति, गहयुति (ग्रहों का योग) और पात महापात (सूर्य चन्द्र के क्रान्तिसाम्य) का विज्ञान है।
जातक स्कन्ध में राशिभेद, ग्रहयोनि (ग्रहों की जाति, रूप और गुण आदि), वियोनिज (मानवेतर-जन्मफ़ल), गर्भाधान, जन्म, अरिष्ट, आयुर्दाय, दशाक्रम, कर्माजीव (आजीविका), अष्टकवर्ग, योग, राशि शील, ग्रहद्रिष्टिफ़ल, ग्रहों के भाव फ़ल, स्त्रीजातकफ़ल, निर्याण (मृत्यु समय का विचार), नष्ट जन्मविधान (अज्ञात जन्म समय जानने का प्रकार), तथा द्रेष्काणों (राशि के तृतीय भाग दस अंश) आदि विषयों का वर्णन किया गया है।
संहिता स्कन्ध में ग्रहचार (ग्रहों की गति), वर्ष के लक्षण, तिथि, दिन, नक्षत्र, योग, करण, मुहूर्त, उपग्रह, सूर्य संक्रान्ति, ग्रहगोचर, चन्द्रमा और तारा बल, सम्पूर्ण लग्नो और ऋतुदर्शन का विचार, गर्भाधानादि संस्कार, प्रतिष्ठा, गृहलक्षण, यात्रा, गृहप्रवेश, तत्कालवृष्टि ज्ञान, कर्मवैल्क्षण्य और उत्पत्ति का लक्षण, इन सबका विवरण दिया गया है।
ये सब वेदों का विषय है। कोई भी व्यक्ति, जो हिन्दू हो, स्वयं को सनातनी कहता हो, वैदिक कहता हो, आर्य मानता हो, उसे वेदों में उल्लिखित ज्योतिष को स्वीकारना ही होता है। क्योंकि ज्योतिष का उल्लेख वेदों में है। ज्योतिष किसी ने घर में बैठकर नहीं बना दिया। यह जब से सृष्टि की उत्पत्ति हुई है, तब से है। इसलिए जो ज्योतिष को नहीं मानता, वह वेद निंदक है। क्योंकि ज्योतिष वेदों का अंग है। आर्य भट्टीयम में कहा गया है कि ज्योतिष की निंदा करने वाले के यश और तप का नाश हो जाता है। यह सूर्य और चंद्रमा की प्रभा से दमकने वाली विद्या भूत वर्तमान और भविष्य का ज्ञान कराती है। किसी के न मानने से विद्या लोप नहीं हुआ करती। इस विद्या में इतनी शक्ति है कि गांव के आखिरी कोने में बैठा बिना किसी आधुनिक साधन से युक्त ज्योतिर्विद आपको गणना करके सूर्य और चंद्र ग्रहण की सटीक तिथि और समय पंचांग देखकर बता देता है। वही काम नासा करोड़ों रुपए खर्च करके बता पाता है।
ज्योतिष की कितनी उपादेयता है, यह अब बताने की आवश्यकता नहीं लगती। आज अब्रह्म अर्थात सनातन धर्म को न मानने वाले यहूदी, ईसाई और इस्लाम के अनुयायी भी ज्योतिष के प्रकांड विद्वान हो गए हैं। यही कारण है कि ज्योतिष को वैश्विक मान्यता है। पूरा संसार ज्योतिष को मानता है। यदि कोई व्यक्ति नहीं मानता हो तो यह शुतुरमुर्ग जैसी अवस्था है।
सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि शास्त्रों ने ज्योतिष (फलित) नक्षत्र विज्ञान (खगोल शास्त्र) और आयुर्वेद को एक माना है। अर्थात बिना ज्योतिष के आयुर्वेद हो ही नहीं सकता। क्योंकि आयुर्वेद के सभी ग्रंथों में ज्योतिष का प्रामाणिक उल्लेख है।
वस्तुतः ज्योतिर्विज्ञान (Astronomy), ज्योतिष (Astrology) और आयुर्वेद तीनों संयुक्त रूप से एक ही हैं। इन तीनों का विभाजन सनातन को कमतर करने की इच्छा से विदेशियों ने किया। लेकिन अब वे भी जान गए हैं कि झूठ अधिक दिन तक नहीं चलता, इसलिए उनके वैज्ञानिक अब इस तथ्य को स्वीकार करेंने लगे हैं।
यदि आयुर्वेद ग्रह नक्षत्रों पर आधरित न होता तो आयुर्वेद के ग्रंथों में यह उल्लेख न होता कि कौन सी औषधि किस मुहूर्त में ग्रहण करनी है और रोग किस नक्षत्र में प्रारंभ हुआ। रोगों का वर्गीकरण सर्वप्रथम ज्योतिष में ही आया। प्राणी के स्वास्थ्य की रक्षा और सभी प्रकार की आधिव्याधि से मुक्ति के लिए अनेक उपाय आयुर्वेद शास्त्रों में कहे गए हैं, जिनमें ज्योतिष के माध्यम से यज्ञ के द्वारा अध्यात्म दैवीय चिकित्सा को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है और ग्रहों के उपाय के बिना किसी भी प्रकार की चिकित्सा को निष्प्रभावी बताया है। क्योंकि मानव को सुख अथवा दुख ग्रहों के अनुकूल और प्रतिकूल होने से ही प्राप्त होते हैं अत: सर्वप्रथम उन्हीं के उपचार का आदेश शास्त्र करता है। तंत्र कल्प के भैषज्य प्रकरण में महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं कि
ग्रहेषु प्रतिकूलेषु नानुकूलं हि भेषजम्।
ते भेषजानि वीर्याणि हरन्ति बलवन्त्यपि॥
प्रतिकृत्य ग्रहानादौ पश्चात्कुर्याच्चिकित्सकम्॥
अर्थात् सूर्य आदि ग्रहों के प्रतिकूल होने पर औषध लाभदायक नहीं होती है, क्योंकि वे प्रतिकूल ग्रह औषधियों की बलवती शक्ति का हरण कर लेते हैं। अत: पहले ग्रहों की शांति कराए और बाद में चिकित्सा करानी चाहिए।
शास्त्रों के अनुसार कर्म के तीन भेद कहे गए हैं। वे हैं प्रारब्ध, संचित और क्रियमाण।
पाप कर्मगत प्ररब्ध के अनुसार मनुष्य कष्ट पाता है, रोग और दुःख का कारक होता है। जिसे जानने के लिए ज्योतिष महत्वपूर्ण विद्या है। ज्योतिष के फलित भाग में जन्म कुंडली आदि के अनुसार प्रारब्ध कथन करते हैं।
आयुर्वेद बिना भिषक अर्थात चिकित्सक के कार्य नहीं कर सकता। संस्कृत व्याकरण के अनुसार भिषक दो शब्दों से बना है। भेष या भिषः का अर्थ है ग्रह नक्षत्र और क का अर्थ है कृत्य अर्थात़् कार्य करने वाला। ग्रहों के प्रकृति से सम्बंधित विशेष कार्य को भिषक या वैद्य कहते हैं। ज्योतिष एवं आयुर्वेद एक दूसरे के पूरक हैं। प्राचीन काल में चिकित्सा शास्त्र और ज्योतिष शास्त्र, दोनों का ज्ञाता ही वैद्य होता था। आयुर्वेद के ग्रंथों, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता आदि में इसका स्पष्ट उल्लेख है कि जो भी चिकित्सक आयुर्वेद पद्धति से उपचार करता है, उसे ज्योतिष का भी उत्तम ज्ञान होना चाहिये । उपचार के लिए प्रकृति को जानना आवश्यक है, क्योंकि प्रकृति वनस्पतियों की जननी है। जो औषधि का मूल तत्व है। कौन सी औषधि किस नक्षत्र की है और उसकी उपादेयता किस नक्षत्र में है, वह किस ग्रह का उपचार करती है। यह सब केवल ज्योतिष से ही जाना जा सकता है। क्योंकि उत्पत्ति से मृत्यु तक ग्रह नक्षत्रों का प्रभाव होता है। ऐसा शास्त्र कहते हैं। इसलिए औषधि ग्रहण करने का मुहूर्त और ग्रह नक्षत्रों की स्थितियां महत्वपूर्ण होती हैं।
योग-रत्नाकर में कहा है कि-
औषधं मंगलं मंत्रो ह्यन्याश्च विविधा: क्रिया।
यस्यायुस्तस्य सिध्यन्ति न सिध्यन्ति गतायुषि।।
अर्थात् औषध, अनुष्ठान, मंत्र यंत्र तंत्रादि उसी रोगी के लिये सिद्ध होते हैं जिसकी आयु शेष होती है। जिसकी आयु शेष नहीं है, उनकी सब क्रियाएं निष्फल हो जाती हैं।
यद्यपि रोगी तथा रोग को देख-परखकर रोग की साध्या-साध्यता तथा आसन्न मृत्यु आदि के ज्ञान हेतु आयुर्वेदीय ग्रन्थों में अनेक सूत्र दिये गए हैं परन्तु रोगी की आयु का निर्णय यथार्थ रूप में बिना ज्योतिष के संभव नहीं है। आयुर्वेद के अनुसार मानव देह एवं मन का विकार कफ, वात और पित्त, इन तीन कारकों पर निर्भर होता है और ज्योतिष शास्त्र में द्वादश राशि, नवग्रहों एवं सत्ताईश नक्षत्रों का विशेष महत्व होता है । ज्योतिष में जन्म चक्र के तीन कारक लग्न, सूर्य तथा चन्द्रमा का अलग-अलग और परस्पर अंत:संबंधों का विशलेषण मुख्य होता है । लग्न व्यक्ति के भौतिक देह, सूर्य आत्मिक देह और चन्द्रमा मन का कारक है । इन्हीं तीनों कारकों के विपरित होने पर नकारात्मक प्रभाव के रूप में हमारे शरीर में रोग उत्पन्न हो सकते हैं, वहीं इनके सकरारात्मक प्रभाव रोगों का शमन करते हैं।